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Jan 21, 2012

Kya Jaag Rahi Ho Tum Bhi....

क्या जाग रही होगी तुम भी?

क्या जाग रही होगी तुम भी?
निष्ठुर-सी आधी रात प्रिये!
अपना यह व्यापक अंधकार,
मेरे सूने-से मानस में, बरबस भर देतीं बार-बार;
मेरी पीड़ाएँ एक-एक, हैं बदल रहीं करवटें विकल;
किस आशंका की विसुध आह!
इन सपनों को कर गई पार
मैं बेचैनी में तड़प रहा;
क्या जाग रही होगी तुम भी?

अपने सुख-दुख से पीड़ित जग, निश्चिंत पड़ा है शयित-शांत,
मैं अपने सुख-दुख को तुममें, हूँ ढूँढ रहा विक्षिप्त-भ्रांत;
यदि एक साँस बन उड़ सकता, यदि हो सकता वैसा अदृश्य
यदि सुमुखि तुम्हारे सिरहाने, मैं आ सकता आकुल अशांत

पर नहीं, बँधा सीमाओं से, मैं सिसक रहा हूँ मौन विवश;
मैं पूछ रहा हूँ बस इतना- भर कर नयनों में सजल याद,
क्या जाग रही होगी तुम भी?

-- भगवती चरण वर्मा

Jan 20, 2012

Jindagi

क्यों  कहते  हो..


क्यों  कहते  हो  मेरे  साथ  कुछ  भी  अच्छा  नहीं  होता,
सच  ये  है  की  जैसा  चाहो  वैसा  नहीं  होता,
कोई  सह  लेता  है,  कोई  कह  लेता  है,
क्योंकि  गम  कभी  ज़िन्दगी  से  बढ़कर  नहीं  होता..
आज  अपनों ने  ही  सिखा  दिया  हमे,
यहाँ  ठोकर  देने  वाला  हर  एक पत्थर  नहीं  होता,
क्यूँ  ज़िन्दगी  की  मुश्किलों  से  हारे  बैठे  हो,
इसके  बिना  कोई  मंजिल  कोई  सफ़र  नहीं  होता..
कोई  तेरे  साथ  नहीं  है  तो  भी  गम  न  कर,
क्यूंकि  'खुद'  से  बढ़कर  दुनिया  में  कोई  हमसफ़र  नहीं  होता...

--Vijay Negi